नदियों का संरक्षण River Conservation : Bal Sabha Utsav Nibandh

नदियों का संरक्षण (River Conservation) :- पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित रखने के लिए River Conservation अत्यन्त आवश्यक है और नदियाँ इसका प्रमुख स्रोत हैं। वर्षों से बढ़ती मानव गतिविधियों और 1980 के दशक तक उद्योगों के अनियमित विकास के कारण भारत की नदियों पर अधिक दबाव पड़ा, जिससे वे प्रदूषित हो गईं। यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है क्योंकि पानी का निरंतर और समतामूलक वितरण समय और स्थान की दृष्टि से संभव नहीं है। साथ ही, नदियों के ऊपरी क्षेत्रों से सिंचाई के लिए बहुत सारा जल पहले ही निकाल लिया जाता है, जिससे नदियों में पानी की मात्रा घटती जाती है।

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नदी संरक्षण (River Conservation) एक चुनौती :-

आज की प्रमुख चुनौतियों में से एक है, विशेषकर भारत जैसे देश में जहां नदियाँ जीवन की आधारशिला हैं। गंगा कार्ययोजना और राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (रा.न.सं.यो.) जैसे कार्यक्रम नदी संरक्षण के महत्वपूर्ण प्रयास हैं, जिनका उद्देश्य नदियों की जल गुणवत्ता को सुधारना और उन्हें प्रदूषण से मुक्त करना है। नदी संरक्षण (River Conservation) के अंतर्गत गंगा और उसकी सहायक नदियों जैसे यमुना, गोमती और दामोदर पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इन योजनाओं में अवरोधन, दिशा बदलाव और सीवेज उपचार जैसी उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। विकेन्द्रीकरण और कम लागत वाली तकनीकें भी नदी संरक्षण के प्रयासों को आर्थिक दृष्टि से प्रभावी बना रही हैं।

नदी संरक्षण (River Conservation) के लिए जनसहभागिता

नदी संरक्षण (River Conservation) के लिए जनसहभागिता अत्यंत महत्वपूर्ण है। गंगा कार्ययोजना के तहत नागरिक निगरानी समितियों को शामिल किया गया है और लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रदर्शनियाँ, श्रमदान और वृक्षारोपण जैसी गतिविधियाँ आयोजित की जा रही हैं।  हालांकि, वित्तीय बाधाएँ नदी संरक्षण (River Conservation) की सफलता में एक बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। राज्य सरकारों की हिस्सेदारी की कमी और समय पर वित्तीय संसाधन न मिलने के कारण परियोजनाओं में देरी हो रही है। नदी संरक्षण की दिशा में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर काम करें और पर्याप्त अनुदान उपलब्ध कराएँ ताकि इन योजनाओं को समय पर और प्रभावी ढंग से पूरा किया जा सके। नदी संरक्षण (River Conservation) को सफल बनाने के लिए न केवल सरकारी प्रयास बल्कि आम जनता की सहभागिता और जागरूकता आवश्यक है। जब तक सभी स्तरों पर ठोस प्रयास नहीं किए जाते, तब तक भारत की नदियों की सुरक्षा और पुनर्स्थापना संभव नहीं होगी।

भारत की प्रदूषित नदियाँ

भारत में कुल 14 प्रमुख नदियाँ हैं, जो किसी न किसी स्थान पर प्रदूषण का शिकार होती हैं। गंगा नदी को सबसे प्रदूषित नदी माना जाता है। 1984 में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण संघ (के.प्र.नि.सं.) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नदियों में 75 प्रतिशत प्रदूषण नदी किनारे स्थित छोटे-बड़े शहरों से निस्तारित अनुपचारित मल-जल से होता है, जबकि शेष 25 प्रतिशत प्रदूषण औद्योगिक अपशिष्ट से होता है, जो संसाधित या असंसाधित दोनों हो सकता है।

अन्य प्रदूषण के स्रोत

इस अध्ययन में कुछ गैर-बिन्दु स्रोतों का भी उल्लेख है, जैसे खुले स्थानों पर पड़ा मल-मूत्र, कचरे के ढेर, कृषि कार्य से जुड़े खेत, बिना जले या अधजले शव और पशु कंकाल आदि। हालांकि, इन स्रोतों से होने वाले प्रदूषण की मात्रा को सही तरीके से मापा नहीं जा सका है, फिर भी यह समस्या नदियों के प्रदूषण में योगदान करती है।

नदियों की सफाई के प्रयास

भारत में नदियों की सफाई का अभियान (River Conservation) 1985 में शुरू हुआ, जब पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री राजीव गांधी ने गंगा कार्य योजना की शुरुआत की। यह योजना भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत आती है और पूर्णतः केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित है। वर्तमान में, इसे राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (रा.न.सं.यो.) के तहत अन्य प्रदूषित नदियों पर भी लागू कर दिया गया है, ताकि भारत की सभी नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सके।

गंगा कार्ययोजना का प्रमुख उद्देश्य

गंगा कार्ययोजना का मुख्य उद्देश्य गंगा में प्रदूषकों के निस्सरण को रोककर उसके जल की गुणवत्ता को लक्षित स्तर तक सुधारना है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण संघ (के.प्र.नि.सं.) द्वारा गंगा के जल की गुणवत्ता को ‘स्नान श्रेणी’ में रखा गया है। इस श्रेणी में गंगा जल का जैव-रासायनिक ऑक्सीजन स्तर (बीओडी) 3 मि.ग्रा./लीटर (अधिकतम) और सान्द्रित ऑक्सीजन स्तर (डीओ) 5 मि.ग्रा./लीटर (न्यूनतम) होना अनिवार्य है।

प्रथम चरण: 25 प्रमुख नगरों में प्रदूषण नियंत्रण

गंगा कार्ययोजना के तहत प्रदूषण नियंत्रण का कार्य 1985 में प्रथम श्रेणी के उन 25 नगरों में शुरू किया गया था, जिनकी जनसंख्या एक लाख से अधिक थी। इन नगरों में से छह उत्तर प्रदेश में, चार बिहार में और 15 पश्चिम बंगाल में स्थित हैं। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य इन नगरों से प्रतिदिन निकलने वाले 1340 मिलियन लीटर नगरीय सीवेज में से कम से कम 840 मिलियन लीटर को गंगा में गिरने से रोकना और उसकी दिशा बदलना था।

प्रदूषण के अन्य स्रोतों पर नियंत्रण

कार्य योजना के तहत, गैर-बिन्दु स्रोतों से होने वाले प्रदूषण, जैसे खुले स्थानों में पड़ा मल-मूत्र, अधजले शव, ठोस अपशिष्ट आदि की रोकथाम के उपाय भी किए जा रहे हैं। साथ ही, स्नान घाटों की मरम्मत और निर्माण का कार्य शुरू किया गया है ताकि नदी का जल प्रदूषित न हो। अत्यधिक प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों पर भी पर्यावरण कानूनों के तहत नियंत्रण लगाया गया है।

परियोजनाओं की प्रगति

गंगा कार्ययोजना के तहत नगरीय गतिविधियों से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए 261 परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है। इनमें से 88 परियोजनाएँ जलस्राव रोकने और उसका रुख मोड़ने से संबंधित हैं, 35 सीवेज उपचार परियोजनाएँ, 43 सुलभ शौचालय, 28 विद्युत शवदाहगृह, 35 नदी घाटों का विकास और 32 अन्य परियोजनाएँ शामिल हैं।

वित्तीय प्रावधान और अंतर्राष्ट्रीय सहायता

गंगा कार्ययोजना के लिए कुल 462.04 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की गई थी, जिसमें 1.5 करोड़ डॉलर (एसडीआर) की विश्व बैंक सहायता और 5 करोड़ डच गिल्डर की नीदरलैंड सरकार की सहायता भी शामिल है। इस योजना का पूरा खर्च केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जा रहा है।

कार्यान्वयन की स्थिति

अब तक 250 योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। शेष 10 योजनाएँ, जिनमें एक उत्तर प्रदेश में, चार बिहार में और पांच पश्चिम बंगाल में हैं, कार्यान्वयनाधीन हैं। योजना के तहत कुल 35 सीवेज उपचार संयंत्र बनाए जाने थे, जिनमें से 28 पर काम पूरा हो चुका है और शेष 7 पर कार्य अंतिम चरण में है। वर्तमान में इन संयंत्रों की जल उपचार क्षमता 683 एमएलडी है। इलाहाबाद स्थित संयंत्र का काम पूरा न होने के बावजूद, 60 एमएलडी सीवेज की दिशा बदलकर इसका उपयोग खेती में किया जा रहा है।

योजना की समयसीमा और व्यय

गंगा कार्ययोजना को 31 मार्च 1997 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन शेष 10 परियोजनाओं का कार्य 1998 के अंत तक ही पूरा हो सका। स्वीकृत राशि 462.04 करोड़ रुपये में से अब तक 440.23 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं।

गंगा कार्ययोजना की शुरुआत और अपेक्षाएँ

गंगा कार्ययोजना देश में पहली बार हाथ में लिया गया एक विशाल परियोजना थी, जिसे 6-7 वर्षों में पूरा करने की उम्मीद की गई थी। लेकिन विभिन्न कारणों से इस योजना में देरी हुई, जिनमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारण शामिल थे:

  1. अनुभव की कमी: यह अपनी तरह की पहली योजना थी, जिसके कारण केन्द्र और राज्य स्तर पर अनुभव का अभाव था।
  2. भूमि अधिग्रहण में देरी: सीवेज उपचार संयंत्र और पम्पिंग इकाइयों की स्थापना के लिए भूमि अधिग्रहण में देरी हुई।
  3. न्यायालय में मुकदमे: उत्तर प्रदेश के कानपुर और इलाहाबाद, तथा कोलकाता में न्यायालय में दायर मुकदमों के कारण परियोजना में देरी हुई।
  4. अनाधिकृत कब्जा: कोलकाता और पटना में उपचार संयंत्रों की स्थापना के लिए अधिगृहीत भूमि पर अनाधिकृत कब्जा था, जिसने कार्य में बाधा डाली।
  5. निविदा में समस्याएँ: बिहार के सात और पश्चिम बंगाल के दो संयंत्रों के निर्माण हेतु निविदा बार-बार जारी की गई, जिससे ठेकेदारी संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
  6. विदेशी सहायता में देरी: कानपुर और मिर्जापुर में संयंत्रों की स्थापना के लिए नीदरलैंड सरकार से सहायता प्राप्ति में देरी हुई। दोनों देशों के बीच प्राथमिक औपचारिकताओं को पूरा करने में समय लगा, हालांकि अब ये दोनों परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं।
  7. राज्य सरकारों द्वारा धन का अन्यत्र उपयोग: उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य की सरकारों ने परियोजना की राशि का अन्य कार्यों में उपयोग किया, जिससे केंद्र से बकाया राशि प्राप्त करने में देरी हुई।

निरीक्षण और संचालन प्रणाली

गंगा कार्ययोजना के संचालन और निरीक्षण के लिए एक बहुस्तरीय प्रणाली बनाई गई है, जो निम्नलिखित है:

राज्य स्तर पर निरीक्षण

  1. क्षेत्रीय इंजीनियरों का निरीक्षण: प्रतिदिन कार्य की प्रगति का निरीक्षण क्षेत्रीय इंजीनियरों के दल द्वारा किया जाता है।
  2. प्रमुख कार्यवाहक एजेंसी का निरीक्षण: कार्यकारी प्रमुख प्रतिमाह निरीक्षण करते हैं।
  3. राज्य संचालन समिति का निरीक्षण: सम्बद्ध प्रमुख सचिवों की अध्यक्षता में राज्य की संचालन समिति समय-समय पर निरीक्षण करती है।

केन्द्रीय स्तर पर निरीक्षण

  1. रा.न.सं.यो. अधिकारियों का दौरा: रा.न.सं.यो. (राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना) के अधिकारी कार्यस्थल का दौरा करते हैं और कार्य की प्रगति की जाँच करते हैं।
  2. केन्द्रीय संचालन समिति का सर्वेक्षण: मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में गठित संचालन समिति हर तीन माह पर प्रगति का सर्वेक्षण करती है, जिसमें सम्बद्ध राज्यों के मुख्य सचिव और लोक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग के विशेषज्ञ शामिल होते हैं।
  3. वैज्ञानिक और तकनीकी जाँच: योजना आयोग के पर्यावरण सदस्य की अध्यक्षता में संचालन समिति त्रैमासिक आधार पर योजना के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं की जाँच करती है।
  4. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में जाँच: राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में प्रतिवर्ष कार्य की प्रगति की जाँच करता है।

परिसम्पत्तियों का परिचालन और अनुरक्षण

योजना के तहत निर्मित परिसम्पत्तियों का परिचालन और अनुरक्षण राज्य सरकारों द्वारा किया जाएगा। सितम्बर 1989 तक पम्पिंग स्टेशनों और सीवेज उपचार संयंत्रों के परिचालन और अनुरक्षण का खर्च केन्द्र सरकार द्वारा वहन किया गया था। बाद में स्वीकृत 25-30 करोड़ रुपये की राशि के समाप्त होने तक यह खर्च केन्द्र और सम्बद्ध राज्य सरकारों द्वारा आधा-आधा वहन किया गया। अब इस राशि का पूरा उपयोग हो चुका है, अतः इन परिसम्पत्तियों के रख-रखाव की जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्य सरकारों पर है।

गंगा कार्ययोजना की प्रमुख बाधाएँ

वित्तीय समस्याएँ

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कुछ राज्य सीवेज जल उपचार संयंत्र और पम्पिंग स्टेशनों जैसी प्रमुख परिसम्पत्तियों के परिचालन और रख-रखाव के लिए पर्याप्त धनराशि जुटाने में असमर्थ हैं। पहले इन खर्चों को केन्द्र और राज्य सरकारें आधा-आधा बाँटती थीं, लेकिन अब राज्य सरकारों को ही यह पूरा भार वहन करना है। पश्चिम बंगाल की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर है, परन्तु अन्य राज्यों में धन के अभाव के कारण सुविधाओं का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है। इसके चलते कई स्थानों पर गन्दा जल अभी भी नदियों में छोड़ा जा रहा है, जिससे कार्ययोजना के लाभ कम हो रहे हैं।

बिजली की अनियमित आपूर्ति

पम्पिंग स्टेशनों, सीवेज उपचार संयंत्रों और बिजली शवदाहगृहों को बिजली की अनिश्चित आपूर्ति भी एक बड़ी बाधा बनी हुई है। यह उम्मीद की गई थी कि इन महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए बिजली अबाधित रूप से उपलब्ध होगी, परन्तु ऐसा नहीं हो सका। बिजली न मिलने की स्थिति में अनुपचारित गन्दा जल नदियों में छोड़ा जाता है, जिससे प्रदूषण की समस्या बनी रहती है।

शौचालय और स्नानघर रख-रखाव

शौचालयों और स्नानघरों के परिचालन और रख-रखाव का काम भी धन की कमी के कारण सही तरीके से नहीं हो पा रहा है। इसका परिणाम यह है कि ये सुविधाएँ समुचित रूप से जनता के काम नहीं आ रही हैं और प्रदूषण की समस्या बनी रहती है।

गंगा में पानी का कम बहाव

फर्रुखाबाद से वाराणसी तक गंगा नदी में पानी का बहाव बहुत कम है, विशेषकर कानपुर में, जहाँ नगर निगम और औद्योगिक स्रोतों से निकलने वाले प्रदूषक तत्वों की मात्रा अधिक है। जल का बहाव कम होने के कारण ये प्रदूषक तत्व गंगा में घुल नहीं पाते, जिससे स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। कानपुर में यह समस्या सबसे अधिक है।

जैविक और माइक्रोबियल प्रदूषण

गंगा कार्ययोजना के अंतर्गत जैविक प्रदूषण (बीओडी के अनुसार) को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सका है, लेकिन उपचारित सीवेज में माइक्रोबायल प्रदूषण (कोलिफार्म काउंट्स के अनुसार) की मात्रा में बहुत कम कमी आई है। माइक्रोबायल प्रदूषण को कम करने के उपलब्ध तरीके या तो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं या फिर बहुत महंगे हैं।

स्वदेशी तकनीकों पर शोध

माइक्रोबायल प्रदूषण को कम करने के लिए उपयुक्त, स्वदेशी और कम लागत वाली तकनीकों पर शोध कार्य शुरू किया जा चुका है। यह प्रयास इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे गंगा के प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद मिल सकती है।

बिजली शवदाहगृहों की स्वीकृति

उत्तर प्रदेश और बिहार में बिजली शवदाहगृहों का व्यापक स्तर पर उपयोग नहीं किया गया है, जबकि पश्चिम बंगाल में इनका उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इससे साफ है कि विभिन्न राज्यों में इनका उपयोग अलग-अलग स्तर पर हो रहा है, जो योजना की सफलता में बाधा बन रहा है।

गंगा कार्य योजना का प्रभाव

गंगा कार्य योजना के तहत 251 परियोजनाएँ पूरी होने के साथ ही गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में सुधार देखा गया है। जल की गुणवत्ता मापने के दो प्रमुख पैमाने बीओडी (बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड) और डीओ (डिज़ॉल्व्ड ऑक्सीजन) हैं, जिनमें सकारात्मक बदलाव हुआ है।

1986 और 1996 के बीच जल गुणवत्ता का विश्लेषण

गर्मियों के दौरान लिए गए औसत आँकड़ों के आधार पर गंगा नदी के विभिन्न नगरों में बीओडी और डीओ के मूल्य निम्नलिखित हैं:

नगरबीओडी (मि.ग्रा./लीटर)डीओ (मिग्रा./लीटर)
19861996
ऋषिकेष1.71.0
कानपुर8.64.1
इलाहाबाद15.53.3
वाराणसी10.62.3
पटना2.21.6
उल्बेरिया1.52.0

कानपुर और इलाहाबाद की स्थिति

हालांकि कानपुर और इलाहाबाद के आस-पास जल की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, फिर भी यहाँ बीओडी का स्तर अभी भी मानक (3 मि.ग्रा./लीटर) से अधिक है। इसके पीछे निम्नलिखित कारण हैं:

  1. सीवेज उपचार में सीमितता: गंगा कार्य योजना के पहले चरण में कानपुर में 3600 एमएलडी में से केवल 1600 एमएलडी और इलाहाबाद में 1100 एमएलडी में से केवल 900 एमएलडी सीवेज को परिवर्तित किया गया।
  2. कम जल प्रवाह: फर्रुखाबाद से वाराणसी तक, विशेष रूप से कानपुर में, जल प्रवाह बहुत कम है, जिससे जल की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध नहीं हो पाती।
  3. पूर्ण प्रभाव में समय: नदी जल की गुणवत्ता पर प्रदूषण नियंत्रण के उपायों का पूर्ण प्रभाव तभी दिखाई देगा जब सभी कार्य पूर्ण होंगे।

उन्नत तकनीकें और उनका महत्व

इस योजना से सीवेज उपचार के लिए कई उन्नत तकनीकें विकसित की गई हैं, जैसे अपफ्लो अनारोबिक स्लज ब्लैंकेट (यूएएसबी), ऑक्सीकरण तालाबों में सुधार, और वृक्षारोपण द्वारा सीवेज उपचार। ये तकनीकें परिचालन और रखरखाव की दृष्टि से किफायती हैं, जिससे राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ कम होगा और गंगा कार्य योजना के भविष्य के प्रयासों में मदद मिलेगी।

कानपुर में चर्मशोधन उद्योग के लिए उपाय

भारत-डच स्वास्थ्य रक्षा परियोजना के तहत कानपुर के जाजमऊ में 175 चर्मशोधक इकाइयों के लिए संयुक्त वाहक और उपचार प्रणाली शुरू की गई है। इस प्रणाली के माध्यम से 70% क्रोमियम को पुनः प्राप्त किया जाता है, जिससे पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को कम किया जा रहा है।

संसाधनों का पुनः उपयोग

गंगा कार्य योजना के अंतर्गत सीवेज उपचार के माध्यम से संसाधनों का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें शामिल हैं:

  • बिजली उत्पादन: बायोगैस के इस्तेमाल से ऊर्जा उत्पन्न की जा रही है।
  • स्लज की बिक्री: उपचारित स्लज को खेतों के लिए पोषक खाद के रूप में बेचा जा रहा है।
  • मत्स्य पालन: जलाशयों में मत्स्य पालन शुरू करने की योजना भी बनाई गई है।

पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा

गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र और जैविक संपदा की रक्षा के लिए जैव नियंत्रण और संरक्षण की योजनाएँ शुरू की गई हैं। संकेतक प्रजातियों के आधार पर विभिन्न स्थानों पर अध्ययन किए जा रहे हैं, जैसे हरिद्वार से कानपुर तक महासीर, ऊदबिलाव, और मगरमच्छ, कानपुर से वाराणसी तक बड़ी शफरी मछली, और बिहार में डॉलफिन मछली का अध्ययन। विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों के वैज्ञानिक इन परियोजनाओं पर कार्यरत हैं।

गंगा कार्य योजना का मूल्यांकन

अप्रैल 1995 में गंगा कार्ययोजना का स्वतंत्र एजेंसियों, विश्वविद्यालयों और शोध एवं विकास संस्थानों द्वारा विस्तृत मूल्यांकन किया गया। इस मूल्यांकन से कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आए, जो योजना की सफलता और कमियों को उजागर करते हैं।

प्रमुख निष्कर्ष

मूल्यांकन रिपोर्ट में बताया गया कि गंगा कार्ययोजना के तहत गंगा के जल में मिलने वाले सामग्री प्रदूषकों की मात्रा में काफी कमी आई है, जो जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक थी। इसके अलावा, रिपोर्ट ने इस तरह के कार्यक्रमों को अन्य नदी बेसिनों में भी लागू करने की सिफारिश की, ताकि वहां भी जल प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।

योजना की कमियाँ और सुझाव

रिपोर्ट में गंगा कार्ययोजना की कुछ कमियों का भी उल्लेख किया गया, जिन्हें भविष्य के कार्यक्रमों में दूर करने की सिफारिश की गई। इस प्रकार के सुधारात्मक सुझाव भविष्य की योजनाओं की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

गंगा कार्ययोजना के तहत वाराणसी (उत्तर प्रदेश) और नाबाद्वीप (पश्चिम बंगाल) में लोगों के स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव मापा गया। अखिल भारतीय जन स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान संस्थान, कोलकाता ने नागपुर के ‘एनईईआरआई’ संस्थान के साथ मिलकर इन स्थानों पर अध्ययन किया। इन अध्ययनों में पाया गया कि योजनाओं के पूरा होने के साथ पानी से होने वाली बीमारियों में कमी आई है। हालांकि, अनुपचारित सीवरों की सफाई करने वाले मजदूरों में अभी भी हैजा, कृमि रोग, त्वचा रोग और श्वसन संबंधी बीमारियों के मामले देखे गए।

उद्योगों पर कड़ी निगरानी

गंगा के तट पर स्थित 68 प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की पहचान की गई और उन पर कड़ी निगरानी रखी गई। गंगा कार्ययोजना के प्रारंभ में केवल 14 इकाइयों में पर्याप्त बहिस्राव निरुपण उपकरण थे, लेकिन जून 1995 तक 55 इकाइयों में एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (ईटीपी) स्थापित किए गए। 12 इकाइयों को बंद कर दिया गया और एक इकाई में टेक्नोलॉजी बदल दी गई, जिससे वहाँ ईटीपी की आवश्यकता नहीं रही। फिलहाल, 45 इकाइयों में ईटीपी संतोषजनक रूप से कार्य कर रहे हैं, और शेष 23 इकाइयों को बंद कर दिया गया है।

जन समुदाय की भागीदारी

गंगा कार्ययोजना में जन समुदाय की भागीदारी पर विशेष ध्यान दिया गया। लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए कई गतिविधियाँ आयोजित की गईं, जैसे प्रदर्शनियाँ, गोष्ठियाँ, श्रमदान, वृक्षारोपण और पदयात्राएँ। हालाँकि, इस संदर्भ में अभी भी काफी कार्य किया जाना बाकी है।

गंगा कार्ययोजना चरण-II

गंगा कार्ययोजना फेज-II और राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (रा.न.सं.यो.) की दो योजनाओं के अंतर्गत गंगा कार्ययोजना के अनुभवों के आधार पर इसके मॉडल में संशोधन करके इसे देश की अन्य प्रमुख नदियों पर भी लागू किया गया है। हालाँकि गंगा कार्ययोजना केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही है, लेकिन इसके खर्च को केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों द्वारा साझा किया जाएगा।

कार्य की प्रगति

गंगा कार्ययोजना फेज-II के तहत पाँच राज्यों के 95 नगरों में कार्य चल रहा है, जो गंगा बेसिन की चार प्रमुख नदियों से संबंधित है। इन कार्यों में शामिल हैं:

  1. गंगा नदी की प्रमुख सहायक नदियों जैसे यमुना, गोमती और दामोदर पर।
  2. गंगा की मुख्य शाखा पर स्थित बड़े नगरों में, जो प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं, और उन नगरों में जहाँ फेज-I के तहत कार्य नहीं हो सका था।
  3. सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 30 अतिरिक्त नगरों में कार्य।
  4. कोलकाता के लेदर कॉम्प्लेक्स के लिए केंद्रीय एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईपीटी) की स्थापना।

इन योजनाओं के लिए 1281.16 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं, जिसमें से 50% केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाएगा। अब तक केंद्र सरकार ने 130 करोड़ रुपये जारी किए हैं।

राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना

रा.न.सं.यो. के तहत 10 राज्यों में 18 अंतर्राज्यीय नदियों के किनारे स्थित 46 नगरों में प्रदूषण नियंत्रण कार्य चल रहे हैं। इस कार्य के लिए 772.08 करोड़ रुपये का खर्च अनुमोदित किया गया है, जिसे केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर उठाएँगी। अब तक इस योजना के लिए 30 करोड़ रुपये की केंद्रीय सहायता दी जा चुकी है।

गंगा कार्ययोजना चरण-II के संशोधन

गंगा कार्ययोजना फेज-II और रा.न.सं.यो. के अंतर्गत किए गए अनुभवों के आधार पर निम्नलिखित संशोधन किए गए हैं:

  1. खर्च का वितरण: योजना के तहत खर्च केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बराबर अनुपात में किया जाएगा। परिचालन और रखरखाव का पूरा खर्च राज्य सरकारें उठाएँगी।
  2. प्रणाली में सुधार: गंदे पानी के सर्वेक्षण के बाद प्रणाली में सुधार किए गए हैं।
  3. विकेंद्रीकरण नीति: खर्च को कम करने के लिए अवरोधन, दिशा बदलाव और उपचार में विकेंद्रीकरण की नीति अपनाई गई है।
  4. भूमि अधिग्रहण: योजनाओं को समय पर पूरा करने के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तेज किया गया है।
  5. कम लागत वाली तकनीक: यूएएसबी, स्थिरीकरण तालाबों और करनाल तकनीक जैसी कम लागत वाली तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा दिया गया है।
  6. अन्य मंत्रालयों के साथ समन्वय: नगरीय मामलों, रोजगार और जल संसाधन मंत्रालयों के साथ मिलकर कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार लाने के प्रयास किए गए हैं।
  7. न्यूनतम जल प्रवाह: बाँधों और जलाशयों में न्यूनतम जल प्रवाह सुनिश्चित करने पर बल दिया गया है।
  8. संशोधित शवदाहगृह: बिजली शवदाहगृहों की जगह लकड़ी के संशोधित शवदाहगृहों को अपनाया गया है।
  9. टॉयलेट कॉम्प्लेक्स: कम लागत वाले टॉयलेट कॉम्प्लेक्स बनाए गए हैं, जिनके रखरखाव का कार्य गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाएगा।
  10. प्रशिक्षण कार्यक्रम: परियोजनाओं को समय पर पूरा करने के लिए परियोजना प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए गए हैं।
  11. नागरिक भागीदारी: नागरिक निगरानी समितियों को शामिल कर जन-जागरूकता बढ़ाने पर जोर दिया गया है। कुछ सीवेज उपचार संयंत्रों का रखरखाव निजी संस्थाओं को सौंपने का प्रस्ताव है।

यमुना कार्ययोजना

यमुना कार्ययोजना पर कार्य प्रगति पर है। दिल्ली से लगे 22 किलोमीटर के नदी मार्ग की स्थिति प्रदूषण और न्यूनतम जल प्रवाह के कारण बेहद खराब है। केंद्र और दिल्ली सरकार के 900 करोड़ रुपये के संयुक्त खर्च के बावजूद जल की गुणवत्ता को स्नान योग्य बनाने में कठिनाई हो रही है। इस योजना के लिए 17.77 अरब येन का विदेशी अनुदान भी प्राप्त हो चुका है, और यह योजना मार्च 1999 तक पूरी होने की संभावना है।

गोमती नदी पर कार्य

इंग्लैंड की ओवरसीज डेवलेपमेंट एजेंसी (ओडीए) गोमती नदी के लखनऊ संघटक के लिए अनुदान देने पर विचार कर रही है। ओडीए पहले ही 4.2 करोड़ ब्रिटिश पाउंड की सहायता अनुमोदित कर चुकी है। लखनऊ में मुख्य कार्य के लिए मास्टर प्लान तैयार किया जा रहा है, जो 1997 में पूरा होने की उम्मीद थी।

वित्तीय बाधाएँ

गंगा कार्ययोजना फेज-II और रा.न.सं.यो. की योजनाओं में एक प्रमुख बाधा राज्य सरकारों की हिस्सेदारी का समय पर उपलब्ध न होना है। बहुत से राज्य अपने हिस्से का धन समय पर नहीं दे पाए हैं, जिससे योजनाओं के कार्यान्वयन में देरी हो रही है। राज्य सरकारों द्वारा परिचालन और रखरखाव के लिए अनुदान की कमी भी इस प्रक्रिया को प्रभावित कर रही है।

भविष्य की चुनौतियाँ

इन योजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य सरकारें इस क्षेत्र को कितनी प्राथमिकता देती हैं। नदी सफाई कार्यक्रमों के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन बेहद महंगे हैं, और राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए धन अपर्याप्त हैं। कार्यक्रमों को जारी रखने के लिए अतिरिक्त टैक्स या निजीकरण जैसे विकल्पों पर विचार करना आवश्यक होगा। इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच गंभीर विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

गंगा कार्ययोजना चरण-II और राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (रा.न.सं.यो.) के अंतर्गत देश की प्रमुख नदियों की सफाई और प्रदूषण नियंत्रण के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं, वे सही दिशा में एक बड़ा कदम हैं। योजना के तहत गंगा और उसकी सहायक नदियों के जल की गुणवत्ता सुधारने के लिए कई तकनीकी और संरचनात्मक सुधार किए गए हैं। इसके साथ ही, भूमि अधिग्रहण, विकेन्द्रीकरण और कम लागत वाली तकनीकों का इस्तेमाल इन योजनाओं को अधिक प्रभावी और व्यावहारिक बना रहा है।

हालाँकि, राज्यों की हिस्सेदारी की कमी और वित्तीय बाधाओं के कारण परियोजनाओं में देरी हो रही है, जो एक बड़ी चुनौती है। इन परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य सरकारें इसे कितनी प्राथमिकता देती हैं और वित्तीय संसाधनों का समुचित आवंटन करती हैं।

वहीं, यमुना और गोमती जैसी नदियों पर भी कार्य तेज़ी से जारी है, लेकिन जल प्रवाह की न्यूनता और प्रदूषण की तीव्रता जैसी समस्याओं के चलते इन परियोजनाओं में समय लग सकता है।

India Water Portal जैसे स्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि जल संसाधनों के संरक्षण के लिए जन सहभागिता और जागरूकता अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन योजनाओं को सफल बनाने के लिए नागरिक निगरानी समितियों की भागीदारी और आम जनता की जागरूकता को बढ़ाना एक स्थायी समाधान के रूप में देखा जा सकता है। जब तक इन प्रयासों में सभी स्तरों पर सहयोग और समर्पण नहीं होगा, तब तक नदियों की वास्तविक सफाई और पुनर्स्थापना संभव नहीं हो पाएगी।

इसलिए, राज्य और केंद्र सरकारों के बीच बेहतर समन्वय, अधिक वित्तीय निवेश, और जनभागीदारी के साथ ही भारत की नदियों का पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सकता है।

स.क्र वरिष्ठ वर्ग (कक्षा 9,10, 11 एवं 12 )स.क्र कनिष्ठ वर्ग (कक्षा 5,6,7 एवं 8 )
1. जल, जंगल और जमीन की बढ़ती समस्या
2. मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक है
3. प्रकृति की धरोहर जल, जमीन और जंगल
4. प्रदूषण – कारण एवं निवारण
5. राष्ट्रीय हरित कोर – ईको क्लब
6. विश्व पर्यावरण दिवस
7. यदि पानी हुआ बर्बाद तो हम कैसे रहेंगे आबाद
8. हरित उत्पाद
9. मोगली का परिवार
10. प्रदेश की खनिज सम्पदा
11. भू-क्षरण कारण एवं निवारण
12. ओजोन परत का क्षरण
13. ऊर्जा के पर्यावरण मित्र विकल्प
14. नदियों का संरक्षण
15. घटते चरागाह वनों पर बढ़ता दवाब
16. पर्यावरण संरक्षण में जन भागीदारी आवश्यक क्यों ?
17. धरती की यह है पीर । न है जंगल न है नीर ॥
18. पर्यावरण से प्रीत, हगारी परम्परा और रीत
19. जंगल क्यों नाराज हैं ?
20. इको क्लब – बच्चों की सेवा की उपादेयता
21. तपती धरती
22. पर्यावरण और जैव विविधता के विभिन्न आयाम
1. प्रकृति संरक्षण का महत्व
2. जल और जंगल का संरक्षण
3. वन संपदा और वन्य जीवों का संरक्षण
4. धरती का लिबास, पेड़, पौधे, घास
5. विश्व पर्यावरण दिवस
6. नर्मदा- प्रदेश की जीवन रेखा
7. ताल-तलैया – प्रकृति के श्रृंगार
8. पेड़, पहाड़ों के गहने
9. कचरे के दुष्प्रभाव
10. मोगली का परिवार
11. किचन गार्डन
12. पोलीथिन के दुष्प्रभाव
13. वृक्षों की उपादेयता
14. जब पक्षी नहीं होंगे
15. जंगल क्यों नाराज हैं ?
16 राष्ट्रीय उद्यान
17. ओजोन परत का क्षरण
18. जल जनित बीमारियां
19. नदी का महत्व
20. पर्यावरण के प्रति हमारे कर्तव्य
21. मानव जीवन पर पर्यावरण का प्रभाव
22. हमारी संस्कृति में जैव विविधता का महत्व
River Conservation

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