प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति पर प्रभाव Gurukul Vyavastha and Bhartiya Sanskruti

प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति : भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली में अनौपचारिक और औपचारिक दोनों प्रकार की शिक्षा व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। औपचारिक शिक्षा मंदिरों, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी, जो उच्च शिक्षा के केंद्र भी थे। वहीं अनौपचारिक शिक्षा परिवार, पुरोहितों, विद्वानों, सन्यासियों और त्योहारों के दौरान प्राप्त की जाती थी। विभिन्न धर्मसूत्रों में यह उल्लेख मिलता है कि माता बच्चे की श्रेष्ठ गुरु होती है। कुछ विद्वानों ने पिता को भी बच्चे का शिक्षक माना है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित होने लगीं।

प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था

प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था की स्थापना प्रायः वनों, उपवनों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य सघन वनों में निवास, अध्ययन तथा चिन्तन पसन्द करते थे। वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र भी पढ़ाए जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिका में बनाए जाते थे, जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा होती थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। बहुधा राजा तथा सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी विद्वान आकृष्ट होते थे, फलतः काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गए।

गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति मे कभी-कभी राजा अनेक विद्वानों को आमंत्रित करके उन्हें भूमि आदि दान में देकर और उनकी जीविका की व्यवस्था करके उन्हें बसा लेते थे। उनके बसने से वहाँ एक नया गाँव बस जाता था, जिसे ‘अग्रहार’ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त, विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों और मठों के आचार्यों के प्रभाव से, ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र बन गए थे। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं। भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इन संस्थाओं में धार्मिक ग्रंथों का अध्यापन और आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (300 ई.पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति कराई। कुछ समय बाद, ये विद्या के महान केंद्र बन गए। ये वास्तव में गुरुकुलों के समान थे, किन्तु इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालंदा विश्वविद्यालय (450 ई.), वल्लभी (700 ई.), विक्रमशिला (800 ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मंदिरों में विद्यालय खोले, जो आगे चलकर मठों के रूप में परिवर्तित हो गए।

सरस्वती वंदना

Girl Education नारियों के लिये पाठशालाएँ

वेदों में वर्णित कुछ मंत्र इस बात को दर्शाते हैं कि कुमारियों के लिए शिक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण मानी जाती थी। स्त्रियों को लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। सहशिक्षा को गलत नहीं माना जाता था।

इच्छा और योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए श्रमणक्रमणिका में उल्लिखित प्राचीन परंपरा के अनुसार ऋग्वेद की रचना में 200 स्त्रियों का योगदान है। शकुंतला राव शास्त्री ने इसे तीन श्रेणियों में विभाजित किया है – (1) महिला ऋषियों द्वारा लिखे गए श्लोक, (2) आंशिक रूप से महिला ऋषियों द्वारा लिखे गए श्लोक और (3) महिला ऋषिकाओं को समर्पित श्लोक। ऋग्वेद के दशम मंडल के 39 और 40 सूक्त की ऋषिकाएँ घोषा, रोमशा, विश्ववारा, इन्द्राणी, शची और अपाला थीं।

वैदिक युग में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण कर वेदाध्ययन और सायं-प्रातः होम आदि कर्म करती थीं। शतपथ ब्राह्मण में व्रतोपनयन का उल्लेख है। हरित संहिता के अनुसार वैदिक काल में शिक्षा ग्रहण करने वाली दो प्रकार की कन्याएँ होती थीं – ब्रह्मवादिनी और सद्योवात्। सद्योवात् 15 या 16 वर्ष की उम्र तक, जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता था, तब तक अध्ययन करती थीं। इन्हें प्रार्थना और यज्ञों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र पढ़ाए जाते थे तथा संगीत और नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी।

महावीर और गौतम बुद्ध ने संघ में नारियों के प्रवेश की अनुमति दी थी, ये धर्म और दर्शन के मनन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं। जैन और बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि कुछ भिक्षुणियों ने साहित्य के विकास और शिक्षा में अपूर्व योगदान दिया, जिनमें अशोक की पुत्री संघमित्रा प्रमुख थीं। वे बौद्ध आगमों की महान शिक्षिकाओं के रूप में विख्यात थीं। जैन साहित्य से जयंती नामक महिला का पता चलता है, जो धर्म और दर्शन के ज्ञान की प्यास में अविवाहित रही और अंत में भिक्षुणी बन गईं।

गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति

हाल की गाथासप्तशती में सात कवयित्रियों की रचनाएँ संग्रहीत हैं। शीलभट्टारिका अपनी सरल तथा प्रासादयुक्त शैली तथा शब्द और अर्थ के सामंजस्य के लिए प्रसिद्ध थीं। देवी लाट प्रदेश की कवियित्री थीं। विदर्भ में विजयांका की कीर्ति की तुलना केवल कालिदास से ही की जा सकती थी। अवंतीसुन्दरी कवियत्री और टीकाकार दोनों ही थीं। कुछ महिलाओं ने आयुर्वेद पर पांडित्यपूर्ण और प्रामाणिक रचनाएँ की हैं, जिनमें रुसा का नाम प्रसिद्ध है।

बौद्धों ने अपने विहारों में भिक्षुणियों की शिक्षा की व्यवस्था की थी, किन्तु कालांतर में इसके उदाहरण भी नहीं मिलते। वास्तव में, कन्याओं के लिए पृथक् पाठशालाएँ नहीं थीं। जिन कन्याओं को गुरुकुल में अध्ययन करने का अवसर मिलता था, वे पुरुषों के साथ ही अध्ययन करती थीं। उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में आत्रेयी अध्ययन कर रही थी। भवभूति ने ‘मालती माधव’ (प्रथमांक) में कामंदकी के गुरुकुल में अध्ययन करने का वर्णन किया है। किन्तु ये उदाहरण बहुत कम हैं। अधिकतर गुरुपत्नी, गुरुकन्या अथवा गुरु की पुत्रवधू ही गुरुकुल में रहने के कारण अध्ययन का लाभ उठा पाती थीं। वास्तव में, शास्त्रों के अनुरोध पर कन्याओं की शिक्षा घर पर ही होती थी।

छात्रावासों का प्रबन्ध Hostel Management

गुरुकुल व्यवस्था में गुरु के प्रत्यक्ष निरीक्षण में रहकर विद्योपार्जन को सर्वोत्तम माना जाता था। इसलिए अधिकांश विद्यार्थी गुरुकुलों में ही रहते थे। गुरु अपने घर पर ही विद्यार्थियों के आवास-निवास की व्यवस्था करते थे। भोजन का कार्य भिक्षा वृत्ति द्वारा चलता था या फिर अध्यापक के घर पर ही व्यवस्था हो जाती थी। उस समय एक गुरु के पास एक साथ प्रायः पंद्रह से अधिक विद्यार्थी नहीं पढ़ते थे। कभी-कभी तो केवल चार विद्यार्थी ही एक गुरु के अधीन अध्ययन करते थे। इसलिए उनके भोजन और निवास की व्यवस्था करना गुरु के लिए कोई कठिन कार्य नहीं होता था। किन्तु यदि गुरु विद्यार्थियों की व्यवस्था करने में असमर्थ होता था तो विद्यार्थी स्वयं अपने रहने की व्यवस्था करते थे।

गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति मे अध्यापन कार्य में विद्यार्थी से धन मांगना अध्यापक के लिए अत्यन्त निन्दनीय माना जाता था। गुरु निर्धन से निर्धन विद्यार्थी को भी पढ़ाने से मना नहीं कर सकता था। जो गुरु विद्या के लिए मोल-भाव करता था उसे विद्या का व्यवसायी कह कर हेय समझा जाता था। ऐसे अध्यापकों को धार्मिक अवसरों पर ऋत्विक के कार्य के अयोग्य कहा गया था। किन्तु गुरु के पढ़ाए हुए एक ही अक्षर से शिष्य अपने आपको उसका ऋणी समझता था। इसलिए समावर्तन के अवसर पर शिष्य सामर्थ्यानुसार गुरु को गुरु-दक्षिणा के रूप में धन देते थे। जो अत्यन्त निर्धन होते थे वे गुरु की गृहस्थी में सेवा-कार्य करके तथा समावर्तन के समय भिक्षा मांग कर गुरु-दक्षिणा देते थे। वस्तुतः राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य था कि वे विद्वान आचार्यों और शिक्षण संस्थाओं को मुक्त हस्त दान दें।

सह-शिक्षा Co-Education

प्रागैतिहासिक काल में साहित्यिक और व्यावसायिक सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति में ही होती थी। संभवतः सगे भाई-बहन और चचेरे भाई-बहन एक साथ परिवार के शिक्षित अग्रजों के संरक्षण में शिक्षा प्राप्त करते थे। जैसे-जैसे विद्या का विस्तार हुआ, विशेष अध्ययन की ओर लोगों की रुचि बढ़ने लगी। परिणामस्वरूप, विद्यार्थियों को परिवार से दूर प्रतिष्ठित विद्वानों के संरक्षण में अध्ययन करना आवश्यक हो गया। अक्सर कन्याओं को भी उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर विद्वान आचार्यों के पास जाना पड़ता था। हालांकि, इस बारे में हमारे ग्रंथों में बहुत कम जानकारी मिलती है।

उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी का उल्लेख है, जो यह दर्शाता है कि उस युग में सह-शिक्षा का प्रचलन था। इसी तरह, ‘मालती-माधव’ में भी भवभूति ने भूरिवसु और देवराट के साथ कामन्दकी के एक ही पाठशाला में पढ़ने का वर्णन किया है। भवभूति आठवीं शताब्दी के कवि हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि उनके समय में या उससे कुछ समय पहले तक बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा का प्रचलन था। पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं भी मिलती हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि कन्याएं बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढ़ती थीं और उनका विवाह युवावस्था में होता था। कभी-कभी गान्धर्व विवाह भी हो जाते थे। इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि उस युग में स्त्रियां बिना पर्दे के पुरुषों के बीच रह कर ज्ञान प्राप्त कर सकती थीं। सहशिक्षा प्रणाली का समर्थन आश्वलायन गृहसूत्र में वर्णित समावर्तन संस्कार की विधि से भी होता है, जिसमें स्नातक के अनुलेपन क्रिया में बालक और बालिका का समार्वतन संस्कार साथ-साथ किया जाता था। इस युग में स्त्री के ब्रह्मचर्याश्रम, वेदाध्ययन और समावर्तन संस्कार का औचित्य आश्वलायन के मतानुसार प्रमाणित होता है।

पूर्व काल में जब बड़ी संख्या में स्त्रियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं और साहित्य में अपना अमूल्य योगदान दे रही थीं, उस समय कुछ स्त्रियां अध्यापन कार्य भी करती थीं। संस्कृत साहित्य में उपाध्याया और उपाध्यायानी शब्दों का प्रयोग मिलता है। उपाध्याय की पत्नी को आदरपूर्वक उपाध्यायानी कहा जाता था, किन्तु उपाध्याया उन विदुषी नारियों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो अध्यापन कार्य करती थीं। महिला शिक्षिकाओं का बोध कराने वाले एक अन्य शब्द की रचना तभी सम्भव हो सकती थी जब महिला शिक्षिकाएँ पर्याप्त संख्या में रही हों। इसके अतिरिक्त, पर्दाप्रथा बारहवीं शताब्दी के बाद भारतीय समाज में आई, अतएव स्त्रियों के लिए अध्यापन कार्य में किसी प्रकार के बन्धन की सम्भावना नहीं थी। यह हो सकता है कि ये उपाध्यायाएँ केवल कन्याओं को ही पढ़ाती हों अथवा बालक-बालिकाओं दोनों को। पाणिनि ने भी आचार्य और आचार्यानी के अन्तर को स्पष्ट किया है तथा छात्रीशालाओं का उल्लेख किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्याएँ इन छात्रीशालाओं की संरक्षिकाएँ भी होती होंगी। रामदास गौड़ ने लिखा है कि हर्ष के बाद सातवीं-आठवीं शताब्दी में भी स्त्रियों के अध्यापन कार्य का पता मिलता है। शंकराचार्य से हार जाने के फलस्वरूप अपने पति मण्डन मिश्र के सन्यास लेने पर उभयभारती श्रृंगगिरि में अध्यापन कार्य करने लगी थीं। कहा जाता है कि भारती द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही शृंगेरी और द्वारका के मठों का शिष्य सम्प्रदाय ‘भारती’ नाम से अभिहित हुआ। फिर भी स्थान की कमी और असुविधाओं के कारण अधिकांश कन्याएं घर पर ही पढ़ती थीं तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करने का साहस नहीं कर पाती थीं। संभवतः इसी कारण इन छात्राशालाओं और उपाध्यायाओं के बारे में अधिक विवरण प्राप्त नहीं होते। हालांकि इस काल में मैत्रेयी, गार्गी, विश्ववारा और लीला-वती जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं थीं, किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि इस युग में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रचलन था अथवा स्त्री शिक्षा संगठित रूप में विद्यमान थी। एल. मुकर्जी के अनुसार, यह सम्भव है कि इस युग में स्त्रियों के लिए शिक्षा की कोई संगठित व्यवस्था नहीं थी।

संभवतः जब समाज में योग्य उपाध्यायाएँ उपलब्ध होती थीं, तो कन्याओं को उनके संरक्षण में भेजा जाता था, किन्तु उनके उपलब्ध न होने पर आचार्यों के पास पुत्रियों को अध्ययनार्थ भेजना पड़ता था। जिस काल में गान्धर्व विवाह समाज में असामान्य नहीं था, सहशिक्षा में कन्याओं के अभिभावकों को कोई आपत्ति नहीं होती थी। किन्तु आगे चलकर गान्धर्व विवाह से कन्याओं के नैतिक पतन की आशंका बढ़ने लगी। अतएव लोग घर पर ही शिक्षक नियुक्त करके कन्याओं की उच्च शिक्षा का प्रबन्ध करने लगे। उच्च शिक्षा हेतु दूरस्थ आचार्यों के पास जाने वाली कन्याओं की संख्या भी अधिक नहीं रही होगी, क्योंकि जातकों में शिक्षा हेतु तक्षशिला जाने वाली बालिकाओं का उल्लेख नहीं मिलता। ईसा की चौथी शताब्दी तक लड़कों के लिए भी सार्वजनिक पाठशालाएँ नहीं थीं। हारीत ने व्यवस्था दी है कि कन्याओं की शिक्षा घर पर ही पिता, चाचा या भाई द्वारा होनी चाहिए। मनु भी कन्याओं को पुरुष शिक्षकों के संरक्षण में रखकर लड़कों के साथ अध्ययन करने के लिए घर से बाहर भेजने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि सहशिक्षा से कन्याओं का कौमार्य नष्ट होने की आशंका बढ़ जाती थी। स्त्री शिक्षा का प्रथम संगठित प्रयास बौद्धों ने किया था। बुद्ध ने संघ में नारियों के प्रवेश की अनुमति दी थी। बौद्धों ने विहारों में निवास करने वाली भिक्षुणियों के लिए शिक्षा की सन्तोषजनक व्यवस्था भी की थी। ब्रह्मवादिनियों के समान इनमें से बहुत-सी नारियों ने धर्म और दर्शन ज्ञान के लिए ब्रह्मचर्य पालन किया। इनमें से कुछ सिंहल देश भी गईं और वहाँ बौद्ध धर्म की महान शिक्षिकाओं के रूप में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। इन विहारों में ये नारियाँ सहशिक्षा ही ग्रहण करती थीं। किन्तु इन बौद्ध संघों में भी ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग नारी शिक्षा का पूर्ण ह्रास हो चुका था। कितनी प्रतिशत छात्राएँ सहशिक्षा ग्रहण करती होंगी, इसका निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। किन्तु यह संख्या अधिक नहीं रही होगी।

Modern Vedic Education

वर्तमान में वैदिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए गुरुकुल व्यवस्था और भारतीय संस्कृति के अनुरूप बाबा रामदेव ने आचार्यकुलम की स्थापना की है। आचार्यकुलम गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक आवासीय शैक्षणिक संस्थान है, जो हरिद्वार, उत्तराखंड में स्थित है। इसका उद्देश्य वैदिक और भारतीय शिक्षा को बढ़ावा देना है। यहाँ आठवीं तक 50 प्रतिशत वैदिक और 50 प्रतिशत सीबीएसई का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। इसके बाद आठवीं के 25 प्रतिशत वैदिक और 75 प्रतिशत सीबीएसई का सिलेबस होता है। यह ऐसा पहला स्कूल है जहां विद्यार्थी को जितनी अंग्रेजी सिखाई जाती है, उतनी ही संस्कृत में भी पारंगत किया जाता है। हाल ही में आचार्यकुलम सीबीएसई बोर्ड से जुड़ा है। आचार्यकुलम में आधुनिक और वैदिक शिक्षा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यहां एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम के अलावा तीन पीरियड वैदिक शिक्षा के होते हैं। इनमें वेद, उपनिषद, संस्कृत, योग, हवन-पूजन आदि का ज्ञान दिया जाता है।

Subjects in Ancient Education शिक्षा के विषय

प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास अत्यन्त विस्तृत है। स्मृतियाँ संस्कृत साहित्य में एक विशिष्ट काल की ओर संकेत करती हैं, जो वैदिक काल से लेकर अपने समय तक की समस्त साहित्यिक रचनाओं का परिचय देती हैं। स्मृतिकालीन विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए वेद, ब्राह्मण, उपनिषद और सूत्र प्रमुख रचनाएँ थीं।

ईसा पूर्व पंद्रह सौ शताब्दी तक अधिकांश वैदिक मन्त्रों का सम्पादन पूरा हो चुका था। तत्पश्चात् वेदों के अर्थ-बोध के लिए जो टीकात्मक और चर्चात्मक ग्रन्थ विकसित हुए, वे ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थ कहलाए। इस काल के विद्वानों ने अपनी प्रतिभा का उपयोग वेदों के स्वरूप की रक्षा और अर्थों के स्पष्टीकरण में किया, न कि नवीन साहित्यिक रचनाओं में। फलस्वरूप, वैदिक यज्ञों से संबंधित अनेक सिद्धांतों, मतवादों और रीतियों का विवेचन ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थों में हुआ। विद्वानों ने अपनी साधना का केंद्र यज्ञों के कर्मकांडों को बनाया, जिससे कर्मकांडों में जटिलता और दुरूहता आ गई। दूसरी ओर, वेदों की दार्शनिक प्रवृत्ति का विकास हुआ और उसने ‘उपनिषदों’ के रूप में पूर्णता प्राप्त की।

समय के साथ वैदिक साहित्य के अलावा भी अन्य साहित्य में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप, इस वर्धमान साहित्य में पारंगत होना अकेले व्यक्ति के लिए संभव नहीं रहा। मुद्रण कला के विकास न होने के कारण वैदिक साहित्य के लोप होने का भय बना रहता था। इसलिए, अध्ययन क्षेत्र को दो भागों में विभाजित किया गया। कुछ वैदिक पंडितों को इस विशाल साहित्य को कण्ठस्थ करने का कार्य सौंपा गया, ताकि साहित्य का शुद्ध स्वरूप अक्षुण्ण बना रहे, जबकि अन्य विद्वानों ने टीकाओं, निरुक्तों और शब्दकोश आदि का अध्ययन कर इनकी व्याख्या करने का अवसर प्राप्त किया। इस काल में हिन्दू मेधा की सबसे अधिक निर्णायक और रचनात्मक प्रतिभा का विकास हुआ, जिससे शिक्षा, दर्शन, न्याय, महाकाव्य, भाषाविज्ञान, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त, कल्प और अनेकों कलाओं में महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त हुईं। इन ग्रन्थों के विद्वानों ने अपने विद्यार्थियों की सुगमता के लिए विषयों को संक्षेप में एकत्र किया। उपनिषदों और सूत्रों के काल (ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि) में लेखन कला का ज्ञान हो जाने पर भी इन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया क्योंकि वैदिक मन्त्रों को लिपिबद्ध करना अधार्मिक माना जाता था। इसी काल में विद्वानों ने वैदिक चरणों के आधार पर धर्मसूत्रों में एक नवीन साहित्य की रचना भी की। उपर्युक्त संस्कृत-वाङ्मय के परिवर्तनशील इतिहास को देखते हुए उसकी विविधता और विशालता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। स्मृतियों में इस समस्त वाङ्मय में वर्णित सामाजिक रीतियों, धार्मिक कर्मकाण्डों और संस्कारों का सर्वेक्षण किया गया है। वस्तुतः, स्मृतियाँ एक विशाल समाज को ध्यान में रखकर ही निर्मित की गई हैं। स्मृति ग्रंथों में गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों, उपनिषदों और मीमांसाओं में पूर्व विद्यमान श्रेष्ठ प्रथाओं, रीतियों, मान्यताओं और संस्कारों का संकलन किया गया है। इस कार्य में जितनी सफलता मनुस्मृति ने प्राप्त की है, उतनी अन्य किसी स्मृति ने नहीं।

मनु ने तीनों वेदों को श्रुति कहा है, जो संस्कृत साहित्य की प्रथम कड़ी हैं। वैदिक मन्त्रों का विकास चरणों के रूप में हुआ, जिनकी वांछित शाखाओं का ज्ञान पुरोहित वर्ग को प्राप्त होता था। मन्त्र, ब्राह्मण और शाखा को पढ़े हुए ‘ऋग्वेदी’, वेदों के पारगामी, समस्त शाखाओं के ज्ञाता ‘ऋत्विज्’ और वेदों को पढ़कर पारंगत हुए विद्वान् ब्राह्मण को विशिष्ट सम्मान प्राप्त था। जो ब्राह्मण तीन वेदों के ज्ञाता होते थे, उन्हें ‘त्रिवेदी’ कहा जाता था।

मनुस्मृति में अध्ययन के लिए वेदों के कुछ प्रमुख विशेष रूप से पारित किए गए हैं। इस काल तक धार्मिक क्रियाओं और प्रायश्चितों द्वारा शुद्धीकरण की प्रक्रियाओं में अत्यधिक विस्तार हो गया था। अतः विशिष्ट अवसरों पर वेदों की कुछ ऋचाओं के उच्चारण का महत्व भी बढ़ गया। मनुस्मृति में ऐसी ऋचाओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इनका उच्चारण पूर्ण संतुलन और नियम के साथ होना चाहिए, जिससे पापों से मुक्ति पाई जा सके। ब्राह्मण अथर्ववेद की अंगिरस श्रुति का प्रयोग शत्रु के नाश के लिए शस्त्र के रूप में करते थे। स्नातकों के प्रतिदिन के स्वाध्याय पाठ में ब्राह्मण ग्रन्थों के अध्ययन का प्रोत्साहन दिया गया है। मनु ने ऐतरेय ब्राह्मण (6.2) के ‘सुब्रह्मण्य’ नामक मन्त्रों और ऐतरेय ब्राह्मण (8.13-16) तथा बहृवृच ब्राह्मण में वर्णित शुनःशेप गाथा का भी उल्लेख किया है।

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